Tuesday, July 29, 2014

वृक्षारोपण

वृक्ष और पेड़ पौधे किसे पसंद नहीं । जब भी हम अपने सीमेंट से बने शहरों से बहार निकल कर प्रकृति की गोद में आते है, तो एक  तीव्र सी तरंग  शरीर से हो गुजरती है और  हम अच्छा महसूस  है। जब भी हम हरियाली के आँचल में होते है, तो ऐसा लगता है की हम अपने असल घरौंदे में वापस आ गए है । यह ही हमारा अस्तित्व है और यहाँ पर ही हम पूर्ण महसूस करते है।

यह धरा सिर्फ मानवो की नहीं है। इसपर बाकि सारे जीव जंतु भी निर्भर है और यह संतुलन बना रहना ज़रूरी है ताकि सभी का अस्तित्व  रहे।  हम सब  एक दूसरे पर निर्भर है और जितना जल्दी हम इस बात को समझ ले उतना अच्छा । 

हाल ही मुझे इस प्रकृति को संतुलित  रखने में योगदान देने का अवसर मिला ।  भारत तिब्बत सीमा पोलिस (ITBP ) की वाहिनियों में हम विभिन्न दिवसों का आयोजन  करते है जिससे की जवानो का मनोबल बना रहता है और उन्हें ज्ञान का प्रदान भी होता है । इसी सन्दर्भ में हमने मानसून दिवस पर वृक्षारोपण करने का फैसला लिया । कई तरह के पौधे लाये गए और वाहिनी के सभी जवानो द्वारा उन्हें लगाया गया । 

Himveers planting trees

आज जब मैं उन पेड़ो को देखता हूँ तो अत्यन्त प्रसनता होती है ।  उनकी फ़िक्र भी होती है । कही वो सुख तो नहीं रहे है ? क्या उनको पूरा पोषण मिल रहा है ? जैसे की वह हमारी अपनी संतान हो। और जब गहरायी से इस बात को सोचेंगे तो पाएंगे की यह सौ आने सच है । वो हमारी  संतान है और हम उनकी । अन्त में मेरी आपसे यही विनती है की जब भी अवसर मिले तो पेड़ लगाये और अपना फ़र्ज़ निभाए । और जब कई सालो के पश्चात आप उन्हें एक छायादार या फलदार वृक्ष के रूप में देखेंगे, तो आपकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं होगा । 

Monday, July 28, 2014

Limitless

Midst this quietness,
I play with anxiety,
I feel tired of this,
of these mediocre ways.
Why does my body,
has to have limits,
when my thoughts,
have never accepted any boundaries.

My desires gallop,
here and there, everywhere,
in all dimensions,
they don't stop to wonder,
if these dimensions can be real?
Why I can't be limitless?
Defying the gallows of logic.
Why can't I breach the horizon?
Why can't I be, limitless?

This mortality curse,
can this be undone?
That's the only way, you see.
For satiating, this,
this eternal curiosity.
This magnificent world we live in,
this colossal creation,
of delicately inter-wined propagation,
can this be understood?
I wish I could.

There are nights,
when I just lay down,
on that comforting grass,
looking up to the stars,
doubting the worth of living,
living with these bounds,
knowing that, you,
that you are only human.

For long I waited,
I watched them twinkle,
as if shying away,
from that bitter, bitter truth.
Even hiding beyond those clouds,
those dark opaque clouds.
But one fine day,
at the point of my desperation,
just when I thought,
that I would yield,
I saw a bright light,
illuminating, rejuvenating light.

There weren't any words,
but I clearly heard them.
"You thought you could never fly,
but you did.
You thought you could never heal,
but you did.
You thought you would never reach the moon,
but you did, you  did.
I didn't create limits,
you did, you did!"

Was the answer,
always this simple?
I wonder.

Alas, I do see it,
we create them,
by doubting ourselves.
Take a leap of faith,
to the unknown and the unexplored.
Raise a toast,
to the undying human spirit,
to this quest we pursue,
and above all, to possibilities.

Be limitless.