हर सुबह जब सूरज की वो पहली किरणे अंधकार को चीरती हुई प्रतीत होती है और पुरे आकाश पर जब सूरज की लालिमा टिमटिमा रही होती है तो मन करता है की बस इस खूबसूरती को निहारता रहू। और जब आप इस बेहतरीन नज़ारे को ब्रह्मपुत्र पर पढ़ रहे प्रतिबिंब के रूप में अपने कक्ष की खिड़की से देख सके, तो उसकी बात ही अलग है।
सूरज की इस अद्वितीय शालीनता पर चार चाँद लगा रही थी वो धीरे धीरे चल रही ठंडी हवाएँ। और बस, साईकल उठाई और निकल पड़े हम कुछ अन्जान रास्तो पर। काफ़ी देर बाद विपरीत दिशा से आ रहे एक साईकल चालक ने पूछा , "कहाँ चले?" तब ध्यान आया की मंजिल के बारे में तो सोचा भी नहीं। सफर के नशे में इस तरह मदहोश हुए की दिशा को भी बेदखल कर दिया। और फिर हॉल ही मे सुने एक गीत के बोल समक्ष आए।
सफर खूबसूरत है, मंजिल से भी !
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